on oral History
Arun Vaghela
मौखिक इतिहास : संकल्पना एवं संशोधन
इतिहास लेखन बिना किसी आधार के नहीं हो सकता। इतिहास की आत्मा उसके स्त्रोत है। बदलते समय के साथ इतिहास के स्त्रोत में भी बहु बदलाव आ रहा है। पिछले छ: दशकों से मौखिक इतिहास नामक नयी स्त्रोत सामग्री का अमेरिका के केलिफोर्निया युनिवर्सिटी से आरंभ होकर निरंतर विकसित हो रही है। इतिहासकार एलन नेवीन्स ने 1940 ई. में ग्रोवर क्लीवडेउ का जीवनचरित्र लिखने के लिए मौखिक इतिहास की नयी पद्धति का प्रयोग किया। प्रस्तुत लेख में मौखिक इतिहास की संकल्पनाओं, उसका संक्षिप्त इतिहास, पद्धतिओं, विशेषताएँ एवं मर्यादाओं की चर्चा की जायेगी।
सर्वप्रथम मौखिक इतिहास की आवश्यकता क्यो? इसकी चर्चा करे।
1. जीवन के सभी प्रसंग अथवा घटनाओं लिखी नहीं जाती? अतः संपूर्ण भूतकाल लिपिबद्ध नहीं होता है। परिणामसवरूप परंपराएं, किदंतीयां, मुख परंपराओ, किवंदतियो भूतकाल जानने के महत्वपूर्ण जानने के महत्वपूर्ण साधन बन सकते है। मुख्यतः दैनिक जीवन को
2. लिखित अथवा मुद्रित शब्द कमी मी अंतिम अथवा प्रमाणित नहीं हो सकता। जो घटना उसे नौखिक इतिहास दद्वारा जाना जा सकता है।
3. भारत जैसे देश में जहाँ इतिहास की प्रारंभ से ही मौखिक परंपरा रही हो एवं मजबूत एवं बेजोड़ एतिहासिक परंपरा का देश भारत में कभी भी मौखिक इतिहास की अवमानना नही हो सकती। हरद्वार के पांडाओ, वंशावलियों रखनेवाले, भाट-चारण की परंपरा इत्यादि उदाहरन के तौर पर देखे जा सकते है।
4. विश्व एवं भारत में करोडो वंचित रह रहे है और अतीत में भी रहते थे। ये वर्ग ब्रिटिशकाल से पूर्व अक्षरज्ञान की परम्परा से भी वंचित थे। इस निरक्षर अथवा अल्पशिक्षित वर्ग के इतिहास लेखन के लिये लिखित स्त्रोतों के अभाव में मौखिक इतिहास महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
5. मौखिक परंपरा को लिखित स्वरूप देने की प्रवृत्ति भी कई क्षेत्रो में देखने को मिली है। जैसे गुजरात में झवेरचंद मेघाणी का साहित्य, डॉ. भगवानदास पटेल द्वारा संशोधित एवं संपादित आदिवासी साहित्य, प्रेमानंद धोलीदास पटेल द्वारा रचित नवसारी प्रांत की कालीपरज (1901), भीलो के गीत' (नाथजी महेश्वर पाठक) इत्यादि। उपरोक्त ग्रन्थो के लेखको ने मौखिक पराओं को ही लिखित स्वरूप दिया है। जिसे हम कंठस्थ से ग्रंथस्थ की यात्रा भी कह सकते है। अगर मुद्रित स्त्रोत आधारभूत विश्वसनीय हो सकता है, तो प्रकाशित का पुरोगामी स्त्रोत मौखिक क्यो नहीं?
6. इतिहास अतीत केन्द्रित विषय होते हुए भी उसके तंतु वर्तमान से जुड़े हुए है, भूतकाल वर्तमान से सर्वथा अलग नहीं है।
उपरोक्त मुद्दों को केन्द्र में रखते हुए इतिहास की मौखिक संकल्पना पर दृष्टिपात करे।
भारतीय इतिहास लेखक में मौखिक इतिहास का स्थान सम्मानजनक नहीं था। बेशक हम जिस इतिहास एवं इतिहास लेखन का मूल ढूंढते है, उसमें मौखिक परंपरा एवं संवाद पर आधारित लिखने वाले हेरोडोटस एवं थ्यूसीडाइडसना के ग्रंथो को प्रारंभिक इतिहास लेखन माना जा सकता है। इसके उपरांत भारत में भी ब्रिटिश आगमन के पूर्व महाभारत एवं रामायण जैसे महाकाव्य इतिहास ग्रंथ के पर्याय थे। लेकिन प्रत्यक्षवादी (Positivist) लेखन पद्धति की आंधी में इस तरह के स्त्रोत दरकिनार कर दिये गये। उल्टे इसके लिए दवितीय कक्षा के स्त्रोत जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाने लगा। समय-समय पर एतिहासिक विगतों को प्राप्त करने के लिए इतिहासकारों के साथ-साथ साहित्यकारों ने भी मौखिक इतिहास का सहारा लिया है। उदाहरण के रूप में 1883 में सेम्युअल ज्होन्सन ने स्कोटिश मान्यताओं एवं रीतिरिवाजों को समझने के लिए मौखिक इतिहास में दद्वारा हुएँ कार्य | (http://www.history.ac.uk)
मौखिक इतिहास की तकनीक का दर्जा Research Centre को जाता है, जो मौखिक वार्ताल samp संग्रहालय है। यहाँ पर ऐलन नेवीन्स ने 1949 से ही संशोधन शुरू किया था। बेशक उनका ध्यान मध्यम वर्ग और व्यापारी वर्ग के संशोधन पर मुख्य रूप से था, फिर भी इस पद्धति की शुरुआत यही से हुई। उसके पश्चात् Black, Ethnic, Minority के इतिहास संशोधन के लिए इस पद्धति का प्रयोग किया गया। उसके उपरांत Lesbian, Gay, Bisexual and Transgender, History of Medicine के संशोधन के लिए इस तकनीक का प्रयोग किया गया। Oral History Review एवं Oral History Reader जैसे जर्नल्स भी प्रकाशित होते रहे है।
20वीं सदी के अंतिम दशक में मौखिक इतिहास ने आंदोलन का स्वरूप धारण किया। 1960-70 के दशक में सामाजिक आंदोलन, नारीदवार, Civic Right (नागरिक अधिकार) एवं वियतनाम युद्ध के दौरान इसका विकास तेजी से हुआ। इसमें Studs Terkel, Alex Haley एवं Oscar Levis जैसे विद्वानों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 1990 के दशक में ब्रिटन में Folk lore Studies, Community History के लिए मौखिक इतिहास का महत्व बल और उसके परिणामस्वरूप Oral History Society की स्थापना हुई। इससे पहले B.B.C. ने अपने विशाल प्रोजेक्ट के लिए 47000 Recollections और 15000 फोटोग्राफ्स का संग्रह किया, जो द्वितिय विश्वयुद्ध के समय का है।
भारत में तो इतिहास मौखिक परंपरा के रूप में चलता आ रहा है, इसलिए इसका मूल ढूंढना ऋषि के कुल एवं नदी के मूल ढूंढने जितना ही कठिन कार्य है, परंतु मेरी दृष्टि में शास्त्रीय इतिहास में मौखिक इतिहास के प्रणेता डॉ. कुमार सुरशसिंह को माना जा सकता है। उन्होंने 1767 Birsa Munda and his movement के अभ्यास के दौरान उन्होंने आदिवासीओं की मौखिक परंपरा, लोकगीत, दंतकथाओ इत्यादि का उत्तम विनियोग किया था।
मानव एवं मानव समाज के विद्यमान ज्ञान एवं अनुभव का बहुत कम भाग ही लिखित रूप ग्रहण कर पाया है। बहुत से व्यक्तियों उनके दैनिक समय के अनुभव के दौरान मानव संबंधों से संबंधित निर्णय एवं कार्य का निरीक्षण करते है। ऐसे व्यक्तियों के पास से विविध पद्धतियों का प्रयोजन कर मौखिक दस्तावेज द्वारा इतिहास का निर्माण दिया जाता है।
मौखिक इतिहास व्यक्तिगत, पारिवारिक, महत्वपूर्ण घटनाओं एवं रोजमर्रा की जिन्दगी से सम्बन्धित एतिहासिक घटनाओं का अध्ययन एवं संग्रहण है। इसके लिए Videotapes रूबरू मुलाकात एवं साक्षात्कार का आयोजन किया जाता है। इस प्रकार के साक्षात्कार उन व्यक्तियों के साथ आयोजित किये जाते जो अतीत की घटनाओं के भागीदार रहे हो अथवा उन्होंने अतीत का अवलोकन किया हो। उनकी याददाश्त और दृष्टिकोण को भविष्य के पीढ़ी के लिए मौखिक अभिलेख मौखिक इतिहास के माध्यम से हम सूचनाओं को विभिन्न copy oral-hmory) कि लिखित स्त्रोत में प्राप्य नहीं है।
मौखिक इतिहास सिर्फ इति को जानने का साधन नहीं है, बल्कि पद्धति भी है जिसके दद्वारा हम सामान्य लोगो का इतिहास लिख सकते है और जो लिखा जाना जरूरी भी है।
मौखिक इतिहास का अर्थ:
(1) ऐतिहासिक बेटा जिसमें आमतौर पर रिकॉर्ड किए गए टेप, साक्षात्कारक के रूप में व्यक्तिगत यादें शामिल होती है। (2) ऐसे डेटा का संग्रह एवं संरक्षण। (3) ऐसे डेटा का ऐतिहासिक लेखा।
(http://www.yourdictionary.com/oralhistory)
मौखिक इतिहास ये कहानियों है जो जीवित व्यक्ति अपने अतीत के बारे में या अन्य लोगों के अतीत के बारे में बताते है।
यह शब्द कभी कबार अधिक सामान्य अर्थों में पिछली घटना के बारे में किसी भी जानकारी को संदर्भित करने के लिए उपयोग किया जाता है. जिसे अनुभव करने वाले लोग किसी ओर को बताते है।
मौखिक इतिहास का उद्देश्य इतिहास के विषय संबंध को रिकार्ड करना है क्योंकि हम जानते है कि एक एतिहासिक घटना में प्रतिभागियों की गवाही इतिहास नहीं है।"
• इतिहास के पुननिर्माण के लिए मौखिक इतिहास एक व्यक्ति की स्मृति है, जो उस घटना में भाग लेता है या उसका पर्यवेक्षक या, जिसके लिए उसने गवाही दी थी।
दस्तावेज जब एतिहासिक नायक से या प्रत्यक्षदर्शी से प्राप्त होता है। जब मौखिक इतिहास एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को, सामान्यतः उसके परिवार की अगली पीढ़ी को प्राप्त हाता है, तो वह मौखिक परम्परा बन जाती है। इस प्रकार मौखिक परम्परा लंबवत रूप में प्रसारण से ली गयी गवाही है। उदाहरण रूप में लोक साहित्य, महाकाव्य, कल्पित कहानी, कल्पित कथा इत्यादि। मौखिक इतिहास में साक्षात्कार को श्रद्धेय स्त्रोत बानने का तरीका निम्नलिखित है।
मौखिक इतिहास
विचार, योजना
साक्षात्कार
प्रतिलेख
संस्करण संपादन
अन्तिम संपादन
दस्तावेज का प्रयोग
आखरी उत्पाद उत्पत्ति
लिखित दस्तावेजो को मृतपात्र माना जाता है, जबकि मौखिक दस्तावेज का प्रयोग जीवित प्रमाणपत्रों की तरह किया जाता है।
मौखिक इतिहास के दस्तावेज बनाने के लिए निम्न चरण हो सकते है।
1. सर्वेक्षण (Survey) :-
गंभीर समस्याओं के लिए समूह, सामूहिक जीवन संरचना, सामुहिक क्रियाएँ, व्यवहार पर ध्यान दिया जा सकता है। पारस्परिक संबंधो को समझने के लिए ये पद्धति उपयोगी सिद्ध होगी। उदाहरण स्वरूप साम्प्रदायिक चेतना, दंगलो के इतिहास में ये पद्धति उपयोगी हो सकती है।
2. प्रश्नावली (Questionnaire)
पोस्ट, ई-मेल, साक्षात्कार के माध्यम से जानकारी दाता के पास से सूचना हासिल की जा सकती है। समाजशास्त्र के विशेषज्ञ डॉ. एडवीन मसीही ने अपने Social Engagement of interaction Inteactuals of Gujarat (2004) में इस पद्धति का प्रयोग किया है।
3. अनुसूची (Scheduled) :-
जानकारी दाता से प्रश्न पूछकर, उसके अनुरूप भरी जाती है।
4. साक्षात्कार (Interview) :-
इसका उद्देश्य व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समूह द्वारा सामने बैठे व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समूह से प्रश्न पूदकर पहले से विचार किये हुए मुद्दो पर जानकारी हासिल करना।
Inter-view, Inter भीतर view देखना जानकारी दाता के अंदर देखना, झांकना समागम A eting भीतर का निरीक्षण।
साक्षात्कार पद्धति मानव की इंद्रियो पर आधारित है अर्थात इसमें बातचीत के माध्यम से सूचना अथवा सामग्री प्राप्त करने का लक्ष्य होती है। यदि एक दूसरे के विचारों, भावनाओं और अनुभूतियों को जानना हो तो उसका सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम बातचीत है। इसके द्वारा विचार या भीतर का निरीक्षण किया जा सकता है। अदृश्य तथ्यों बाह्य निरीक्षण कठिन है, लेकिन ऐसे तथ्यों की जानकारी साक्षात्कार के माध्यम से प्राप्त की जानी है। गुप्त बाते जानने को मिलती है Tool of self-exploration (आत्मअभिव्यक्ति) साक्षात्कार को एक व्यवस्थित पद्धति के रूप में माना जा सकता है, जिसके द्वारा एक व्यक्ति तुलनात्मक रूप से अजनबी के आंतरिक जीवन में कम या ज्यादा कल्पनशील रूप से प्रवेश करता है। (Rajiv Kumar Gohit, 2007, P-209)
मुलाकात, वार्तालाप या साक्षात्कार एक विशिष्ट प्रकार की संशोधनात्मक कला है और ये सभी इतिहास शोधार्थीओं को साध्य भी नहीं हो सकती है। एक साक्षात्कारकर्ता में साक्षात्कार के पूर्व की समस्या का ज्ञान, विनम्रता, निष्पक्षता, कुशलता, चातुर्यता, बौद्धिक ईमानदारी, मिलनसार स्वभाव, आकर्षक व्यक्तित्व, व्यहारकुशलता, समायोजन क्षमता आदि गुण अपेखित है। सूचना प्राप्त करने के लिए तैयार कर सके एवं हवा के रूप के साथ अपना वाहन चला सके, ऐसे व्यक्ति ही साक्षात्कार ले सकते है।
साक्षात्कार क्षेत्र कार्य की एक तकनीक है, जिसका उपयोग किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के व्यवहार को देखने के लिए किया जाता है, ताकि वे समाज व समूह के एकीकरण के ठोस परिणामों का अवलोकन कर सके।
इन्टरव्यू कोई संवाद नही है। इसमें उत्तरदाता को बोलने देना, छोटे-तार्किक प्रश्न पूछना, विवादास्पद प्रश्न नहीं पूछने, जवाबदाता की पसंद-नापसंद को समझना। आदि जरूरी बाते हैं।
साक्षात्कार द्वारा इतिहासकारों की अपेक्षाएँ (उद्देश्य)।
1. प्राथमिक तथ्य की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
2. समीप के अतीत का बारीकी से अध्ययन किया जा सकता है।
3. विश्वसनीय पद्धति है। (इन्टरव्यू लेने वाले के प्रश्नों के आधार पर निर्भर है)
4. प्राप्त सूचना की विश्वसनीयता ।
5. हर प्रकार की जानकारीदाता (वर्ग, जाति, धर्म) के लिए उपयोगी है।
6. व्यक्तिगत से लेकर पारिवारीक एवं सामुदायिक जीवन की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
8. जानकारी दाता को उसके परिवेश में गहरा
9. संशोधन के प्रश्न जटिल होने पर यह पदधति
7. जानकारी दाता को उसके स्वयं के परिवेश में गहराई से जानकारी जुटाई जा सकती है।
इसके विरुद्ध, धन, शक्ति, समय का व्यय, झूठ, डरपोक, अतिचतुर जानकारी दाताओं अ बड़े संशोधन के क्षेत्र में साक्षात्कार असहाय है। अतिशयोक्तिपूर्ण जानकारी इत्यादि इन्टरव्यू तकनीकी की कुछ मर्यादाएँ है।
इतिहास संशोधन के क्षेत्र में साक्षात्कार का उमदा नमूना प्रोफेसर बिपिन चन्द्र ने गुजराती साक्षर, स्वतंत्रता सैनिक उमाशंकर जोशी के साथ साक्षात्कार है। तारीख 7, 8 जुलाई 1985 के दिन बिपिन चन्द्र द्वारा गुजरात के जानेमाने साहित्यकार उमाशंकर जोशी के साथ की गयी रूबरू मुलाकात जो कि 6 घंटे 45 मिनिट चक चली और उसकी Transcript 176 पृष्ठो की है। उसमे उमाशंकर वैयक्तिक, पारिवारिक जानकारी के अलावा साक्षर जीवन, नेहरू का राजकारण, सरदार-साम्यवादियो के मध्य विरोध, लेबर बील, शिक्षण व्यवस्था, देशी रियासतो का प्रशासन, सांप्रदायिक अभिगम्, स्वतंत्रता आंदोलन में आरोह-अवरोह स्वदेशी, असहयोग, दांडी मार्च इत्यादि - वक्ता के रूप में गाधीजी, गांधीजी की हरीजन नीति, स्वतंत्रता आन्दोलन में स्त्रीयों का योगदान और गांधीजी की भूमिका, गांधीजी के ब्रह्मचर्य के विचार, मनुबेन के साथ प्रयोग, सुभाष गांधी विवाद, स्वतंत्रता आंदोलन के साथ चल रहे दूसरे आन्दोलन, उच्चवर्ग का योगदान इत्यादि मुद्दो पर बहुत ही रुचिपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इस साक्षात्कार में उमाशंकर ने 3-4 वाक्य से लेकर 3 पृष्ठ एवं 10 पृष्ठ तक के लंबे जवाब दिये है। ये इन्टरव्यू इतिहासकार बिपिनचन्द्र की इन्टरव्यू तकनीक का सुंदर प्रयोग है।
प्रस्तुत इन्टव्यू का उद्देश्य केवल उमाशंकर से मुलाकात है, किन्तु कुशल इतिहासकार बिपिनचन्द्र यहीं उनके पास के तात्कालिक गुजरात की राजव्यवस्था (राजकारण) एवं देश की स्थिति का प्रतिबिंब जान सके है। यह इन्टरव्यू नेहरू मेमोरियल लाईब्रेरी एवं म्युझियममें सुरखित।
Transcript साक्षात्कार दस्तावेज कैसे बनते है? इसका उत्तम उदाहरण भी उपरोक्त साक्षात्कार है। इस इन्टरव्यु को प्रकाशित कर विशाल इतिहास संशोधक समुदाय को उपलब्ध करवाना चाहिए। M.Phil, Ph.D. के विद्यार्थियों को पढ़ाना चाहिए। सामान्य प्रश्न से विशिष्ट प्रश्न की ओर कैसे जाना चाहिए? इसका उमदा उदाहरण भी इस इन्टरव्यू में मिलता है। विपिनचन्द्र ने स्वयं के व्यक्तित्व को गौण कर उमाशंकर को बोलने का पूरा मौका देते है।
"मौखिक इतिहास के लिए संरक्षण व उपयोग के लिए एक योजना की आवश्यकता है। साक्षात्कार में आदेशात्मक प्रश्न नहीं पूछने चाहिए।" इसका भी यहाँ उदाहरण मिलता है। (1) Verbalim. (शब्दशः) (2) Edited इन्द्रव्यू की कॉपी तैयार करके transcribe उत्तरदाता को review के लिए देनी चाहिए। यह साक्षात्कार का तंदुरूस्त तरीका है।
अपनी संशोधन दृष्टि से. इन्द्रियों द्वारा जानकारी
घटना कार्यकारण अथवा पारस्परिक संबंध जिस रूप में हो उसका निरीक्षण अथवा वर्णन करने को अवलोकन पद्धति कहते है। इससे रीतिरीवाजों, त्यौहारों एवं सामुहिक सामाजिक व्यवहारों की गहनता से अध्ययन किया जा सकता है। इसका उमदा उदाहरण वेरीयन एल्थीन है। Philosophy of Nepha से लेकर एल्वीन द्वारा लिखित कुल 37 पुस्तको में से 27 पुस्तक मध्य भारत के आदिवासी समूह के ऊपर लिखे गये है। एल्वीन पूरी तरह आदिवासी जीवन से ओत-प्रोत थे. उन्होंने न केवल यहा आवास किया, बल्कि आदिवासी कन्या से विवाह भी किया। वे केवल संशोधक ही नहीं महान कर्मशील व्यक्ति थे।
इस पद्धति में सामुहिक व्यवहार का निरीक्षण अर्थात प्रवृत्ति के हर छोटे-मोटे पहलु का अवलोकन करना है। Ethnic community स्त्री का स्थान, धार्मिक जीवन, परंपरागत प्रशासनिक तंत्र कानून व्यवस्था, चिकित्सा शास्त्र, आदि को जानना है। ग्रामीण इतिहास के संशोधन के लिए अवलोकन पद्धति बहुत उपयोगी है। जब जानकारीदाता सूचना देने को उत्सुक नहीं हो, तब इस पद्धति की महत्ता और भी बढ़ जाती है। गुजरात के क्षेत्र में इसका उदाहरण डॉ रोहित पंडया का संसोधन कार्य "ग्रामीण गुजरातमा समाज परिवर्तन एवम गांधीवादी नेतृत्व (2000) है। इस संशोधन कार्य "ग्रामीण गुजरातमा समाज परिवर्तन एवम गांधीवादी नेतृत्व' (2000) है। इस संशोधन में उन्होंने इन्टरव्यू शीडयूल, इन्टरव्यू गाइड, पाटर्टीशीपेन्ट, ऑब्जर्वेशन, ग्रुप डिस्कसन की पद्धतियों का प्रयोग किया था। 2 वर्ष के संशोधन के दौरान उन्होंने 4 महीने तक खेड़ा जिले के थामणा गाँव में निवास किया। 50 जानकारीदाताओं से साक्षात्कार भी प्रस्तुत ग्रंथ को विशेष बनाते है।
ऐसे दो उदाहरण समाजशासत्र के संशोधन में भी है। William White ने Street corner टपोरी (बहुनाम लड़के) के अध्ययन के लिए टपोरी गैंग के सभ्य के रूप में ढाई वर्ष तक रहे।
प्रमीला कपुर Indian Call Girl (1978) के अध्ययन के दौरान सेकडो Sex workers के साथ इसी पद्धति से कार्य किया था।
संक्षेप में Participatory observation तकनीक इतिहासकारों के लिए बहुत उपयोगी व महत्वपूर्ण है. किन्तु गुजरात के इतिहास संशोधन में इसका आशाप्रद स्थान नहीं है।
आदिवासी इतिहास संशोधन में मौखिक इतिहास
20वीं सदी के अन्तिम दशक में शुय हुआ subaltern वंचितलक्षी इतिहास लेखन पद्धति sample में आदिवासी इतिहास का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने लेखन को नकार दिया गया है। इसका कारण वंचितों के भूमिका की अवगणना आदि है। इन आदिवासी इतिहास लेखन में उपयोग के सामने भी है। सभी प्रकार के में इतिहास इसका कारण ब्रिटिश एवं मध्यमवर्गीय रिकोर्ड में आदिवासीओं को गुनहगार जातिओं, जंगली जातियों के रूप में वर्गीत किया गया है। इसी प्रकार मध्यमवर्गीय भारतीय स्त्रोतों में भी इस प्रकार का लेखन किया गया है। इस प्रकार के कितने लेखनों में आदिवासी समुदाय की ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विशिष्टता, सामाजिक तनाव, अर्थोपार्जन की प्रवृत्तियों, जनसमुदाय की कशमकश, सामुदायिक जीवन आदि वर्णन करना तो रह ही गया है। संक्षेप में आदिवासी इतिहास अभिलेखागारीय या मध्यनवर्गीय स्त्रोतों में पूरी तरह प्रतिबिंबित नहीं होता है। इस स्थिति में official records enrich करने के लिए मौखिक इतिहास अनिवार्य है।
विश्व के बहुत से निम्नवर्गीय समुदाय विशिष्ट जीवनशैली और मौखिक परंपरा को संजाये रखते है। किन्तु निरक्षरता, इतिहास को दर्ज करने की गेर समझ के कारण वो लिपिबद्ध नहीं हो पाया है। इन रिक्त स्थानों को भरने के लिए ऐसे समुदायों के साथ रूबरू मुलाकात, समूह चर्चा, अवलोकन पद्धति का प्रयोग करके ऐसे समूह का इतिहास संशोधन किया जा सकता है। ऐसी संशोधन प्रक्रिया के दौरान ऐसे समुदायों से संबंधित गीत, गाथा, चित्र एवं लिखित दस्तावेज भी मिल सकते हैं।
यहाँ एक खास बात यह है कि अभी तक जो गुजरात के आदिवासीओं पर संशोधन हुए है, उसमें भी ज्यादातर वार्तालाप व अवलोकन पद्धति का अभाव ही रहा है। इसी प्रकार 19वीं सदी के अंत में एवं 20वीं सदी के प्रारंभ में गांधीवादियों द्वारा रचित ग्रंथो (जुगतराम देव, ठक्करबापा इत्यादि) भी मौखिक इतिहास की ही उपज है। 1820 में कालेखां पठाण एवं वजेराम उपाध्याय रचित सूरत मांडवी के देशी राज्य में कालीपरज (आदिवासी) से संबंधित हकीकत नामक प्रकरण क्षेत्रकार्य व जन जानकारी पर ही निर्भर है। 1901 में नवसारी प्रांत की कालीपरज पर लिखने वाले लेखक श्री प्रेमानंद धोणीदास पटेल वडोदरा राज्य के शिक्षण अधिकारी थे। अतः उन्होंने व्यापक क्षेत्रकार्य कर नवसारी प्रांत के आदिवासीओं पर एक अद्भुत ग्रंथ का निर्माण किया था। उसी प्रकार 1915 में 'भीलों के गीतों को एकत्रित कर प्रकाशित करने वाले नाथजी महेश्वर पाठक की पद्धति भी आदिवासीओं के वार्तालाप कर जानकारी प्राप्त करने की ही रही थी। यहाँ इससे संबंधित एक मुद्दे पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि उपरोक्त ग्रंथों में निरूपित आदिवासी गीतो, जीवन पद्धति, उखाणा एवं अन्य विगतो शताब्दियों से इसी प्रकार चली आ रही थी और आज भी अपरिवर्तनीय रूप में चल रही है। यहाँ पर सवाल ये है कि जब आदिवासीओं की ये जानकारी ग्रंथस्थ हो जाती है, तब इतिहासकारों के आधारभूत बनती है, जबकि इन जानकारी परंपरीत रूप बन रही होती है तब क्यों नहीं?
फिरभी मेरे व्यक्तिगत अनुभवके आधार पर कह सकता हूँ कि जो आदिवासी गीत में आज से100 वर्ष पूर्व शब्द, राम ताल लय थे वो जो आज भी इसी स्थिति में बरकरार है। क्योंकि आदिवासी जितनी मजबूत मौखिक परंपरा भारत में सी दूसरे समुदाय के पास नहीं है।
गुजरात में आदिवासी इतिहास में पर्याप्त रूप से इतिहास संशोधन नहीं हुआ, वहां इस इतिहास संशोधन में मौखिक इतिहास के विनियोग का तो प्रश्न ही दूर है। फिर भी अपने पास डेवीड हार्डीमेन जैसा गौरवान्वित नाम उपलब्ध है। उन्होंने Coming of Devi (1987) में उपाश्रयी लेखन विद्या के अन्तर्गत कार्य करते हुए, उन्होंने क्षेत्रकार्य का प्रयोग भी बखूबी किया है। हार्डीगेन ने सइ ग्रंथ में स्पष्ट रूप से लिखा है कि रूबरू मुलाकात में से मिली सूचनाओं के आधार पर यह ग्रंथ अधिकांश निर्भर करता है 247 पृष्ठों के इस ग्रंथ को 139 गाँवों, 14 शहरों एवं 232 जानकारी दाताओं लेकर उन्होंने मौखिक इतिहास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण मुकाम हासिल किया है। दक्षिण गुजरात में संशोधनस्त था, तब वहाँ के एक गाँव के मंदिर के संचालक श्री बचुभाई गामीत का कहना है कि अंग्रेज प्रोफेसर डेवीड हार्डीमेन पूरा दिन मोटर साइकिल पर तेज धूप में छूकर साम-सुबह अपने कार्य में रत रहते थे। उ नके जैसा समर्पित इतिहासकार हमने नहीं देखा है। हालांकि डेवीड हार्डीमेन ने अपनी शोध में सूचनादाताओं से किस प्रकार के प्रश्न पूछे, उसकी चर्चा ग्रंथ में नहीं कही गई है। फिर भी ग्रंथ में जगह-जगह जानकारी दाताओं के साथ साक्षात्कार देखने को मिलते है। ऐसा एक अंग्रेज प्रोफेसर कर सकता है, तो हम क्यु नहीं?
मौखिक इतिहास की मर्यादाएँ:
1. इस प्रकार की स्त्रोत सामग्री में निश्चित तारीख और वर्ष मिलना मुश्किल है।
2. सूचनादाताओं में (आत्मश्लाघा) Self-projection ज्यादा रहता है।
3. मौखिक इतिहास की तकनीकी अजमाने में समय; शक्ति का काफी व्यय भी होता है।
4. शोधार्थी कई बार तत्क्षण नोंघ, तस्वीर, रेकार्डिंग से वंचित रह जाता है।
5. साक्षात्कार की तकनीकी में सूचना में सूचना दाताओं द्वारा अलौकिक और अतिशयोक्तिपूर्ण व्यौरा सुनने को मिलता है।
6. बड़े शोध और लंबे अतीत के लिए मौखिक इतिहास की तकनीकी कारगत नहीं है।
संक्षेप में, इतिहास लेखन में मौखिक स्त्रोतो की काफी अहमियत है। उसकी अनेक मर्यादाएँ होने के बावजूद इतिहास लेखन में मौखिक स्त्रोतो का उपयोग बढ़ता जा रहा है।
- References:-
1. Gohit Rajivkumar, Research Methodology in History, Delhi, 2009.
2. Singh K.S.,
3. Delhi, 1993
Jan Vansina, Trans, H.M. Wright, Routleds
4. Hardimen David, Coming of Devi: an Adivasi assertion in South Gujarat, Delhi, 1986
5. पटेल प्रेमानंद, नवसारी प्रांतकी कालीपरज (गुजराती) बडौदा, 1901
6. पाठक नाथजी महेश्वर, भीलों के गीत (गुजराती), अहमदाबाद, 1915
7. वाघेला अरूण, विस्मृत शहीद, जयपुर, 2019
8. पंड्या रोहित, ग्रामीण गुजरात में समाज परिवर्तन और गांधीवाद नेतृत्व, अहमदाबाद, 2000 |
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